Poems


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क्या खुशी का नहीं अधिकार

अर्चना कोहली 'अर्चि' / November 21, 2022

उजड़ी माँग, सूनी कलाइयाँ

चुप है पायल और रंगीनियाँ।

फिर भी मिलती रुसवाइयाँ

वाक-शूलों से बढ़ी दुश्वारियाँ।।

कंठ सूना है बिना मंगलसूत्र

तन पर लिपटा है श्वेत वस्त्र।

शून्य में निहारे अब अँखियाँ

सैयाँ बिन नहीं प्यार-गलियाँ।।

अधरों पर रचे न अब लाली

बिछड़ गया चमन का  माली।

बंदिशें उसपर लगी हज़ार हैं

सभी के लिए वे हुई भार हैं।।

अपशकुनी कह होते हैं वार

किए जाते चरित्र पर  प्रहार।

जाती कुचली अकेली जान

रखी है उस पर उँगली तान।।

घर की रानी बन गई है दासी

मन में बिन पिया के है उदासी।

रखा जाता शादी-ब्याह से दूर

नहीं है अब वह दिल का नूर।।

खाने-पहनने पर लगी है रोक

हर आहट पर वह जाए चौंक।

क्या खुशी का नहीं अधिकार

छूट गया क्यों उससे श्रृंगार।।

नियति के कारण लूटा सुहाग

बिना कसूर ही लगा है दाग।

बाल कटवाकर किया मुंडन

बातों के नश्तर से बढ़े घुटन।।

कैसा है समाज का यह दस्तूर

स्त्री को सज़ा मिले बिन कसूर।

कब बदला है पुरुष ने परिधान

पुनर्विवाह कर बसाया बागान।।

पुनर्विवाह पर ईश्वर ने दिया बल

इससे बयार रही थी कुछ बदल।

इस दिशा में करना होगा प्रयास

तभी फैले चहुँदिशा में उल्लास।।

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