Poems


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विजय का उत्सव -विजयादशमी

अर्चना कोहली 'अर्चि' / May 27, 2022

अहंकारवश त्रेता रावण ने  किया कुल संहार

अनेक गुणों पर भारी पड़ा उसका अहंकार।

इसी हेतु महा योद्धा होते हुए भी परास्त हुआ

शिव का परम भक्त होते भी कुल ध्वस्त हुआ।।

इसी हेतु आज भी राम-जीत उत्सव मनता है

असत्य और दर्प का प्रतीक दशानन जलता है।

पर क्या वास्तव में रावण पंचतत्व में समा गया

सही मायने में क्या अभी राम-राज्य आ पाया।।

लाखों रावणों का देशभर में फैला हुआ जाल

उनके आतंक से राम भी हो जाते हैं बेहाल।

सत्य का आज पल-पल पर शोषण होता है

असत्य सीना तान सत्य-राह में शूल बोता है।।

आज द्वेष-दर्प-ईर्ष्या के कितने ही दशानन हैं

नारी-अस्मिता को रौंदते अनगिनत दुशासन हैं।

उस युग में फिर भी थी जनक-पुत्री सुरक्षित

आज तो अपनों के बीच भी वह है भयभीत।।

कितने ही मारीच स्वर्ण-मृग बन भरमाते हैं

कितने ही राम उनके माया-जाल में आते हैं।

मर्यादा की लक्ष्मण-रेखाएँ पल-पल टूटती हैं

हृदय में अविश्वास-भित्ति की आग जलती है।।

विद्या धन-संपत्ति पर आज हर कोई इतराता

मुख पर आवरण लगाकर हर कोई है घूमता।

एक रावण को मारकर तो त्योहार मनाते हैं

मन में बैठे ये दशकंधर तो आतंक फैलाते हैं।।

इस कलियुग में हर दिन एक रावण पैदा होता

ईमानदारी-सत्य के नाश हेतु विष-बीज बोता l

किस-किस को हम अंतर्मन से निकाल पाएँगे

कैसे इन असुरों के मन में बदलाव ला पाएँगे।।

आज एक जटिल प्रश्न हमारे सामने खड़ा है

बुराईयों से घर का द्वार-द्वार अब अटा पड़ा है।

राम-राज्य की कल्पना तभी हो पाती साकार

जब नष्ट होते तामसिक प्रवृत्तियों के परिवार।।

विजयादशमी उत्सव की सार्थकता तभी रहेगी

जब सच्चे मन से नारी आदर की सुपात्र बनेगी।

द्वेष-कलह-गर्व के विषधर तिरोहित हो जाएँगे

तभी तो हर दिन उत्सव जैसे हम मना पाएँगे।।

चित्र आभार: unplash.com

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