Poems


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चुनरी दो गज की

अर्चना कोहली 'अर्चि' / November 16, 2024

चुनरी दो गज की

सरकी तन से ओढ़नी, कैसी आई वात।
बने आधुनिक आज हैं, झुकती नजरें  तात।।

चुनरी दो गज की भले, गहना वह था लाज।
क्यों माना अब भार है, सिर का था ताज।।

बदला आज समाज है, भूले सब संस्कार।
परदा था जो शरम का,  उसको दिया उतार।।

वह है फटी पतंग सी, अटकी मानो ताड़।
फैली इसमें सभ्यता, गिरती वह है धाड़।।

उड़ती रहती थी गगन, हमने दिया नकार।
आँधी कैसी थी चली,  डूबी वह मँझधार।।

सिमटी दुलहन ओढकर , निखरा है श्रृंगार।
इसमें छिपे रिवाज हैं, बसता माँ का प्यार।।

लहराकर जब भी उड़े, मचले मेरे कांत।
 जगता उनमें नेह था, बैठे जो थे शांत।।

कैसा प्यारा दौर था, सजे कामिनी अंग।
हवा संग थी नाचती, कितने सारे रंग।। 

शोभा थी स्त्री की कभी, सिमटा अब बाजार।
माँ के आँचल से जुड़ी, होती अब है तार।।

गौरव यह है देश का, करना इस पर गौर।
इससे ही पहचान है,  लौटा लाएँ दौर।।

अर्चना कोहली 'अर्चि'
नोएडा (उत्तर प्रदेश)

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