Poems


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हरी-भरी हो धरा

अर्चना कोहली 'अर्चि' / April 26, 2024

देख दशा निज देश की, सिसके वसुधा आज।
हुई प्रकृति बदरंग है, कौन करे अब नाज।।

चहुँदिश में है गंदगी, कूडे़ का वह ढेर।
हरित वृक्ष अब हैं कहाँ, देते धरा बिखेर।।

काट दिए जंगल सभी,  टूटे पंछी नीड़।
सभी पशु बेघर हुए, बढ़े शहर में भीड़।।

चहके पंछी अब नहीं, फैले तन में रोग।
खतरे में हो जान है, शुद्ध नहीं अब भोग।।

वाहन की भरमार है,  बढ़ते रहते रोज।
उड़ता रहता धूम्र है, उतरा मुख से ओज।।

करें बेकार नीर हैं,  होता तभी अभाव।
सीचें कैसे खेत हम, हुआ पथ पर भराव।।

पड़ा असर है सभी पर, ताजमहल अब स्याह।
हुआ कैसा विकास है, निकले मन से आह।।

हुआ छेद ओजोन में, मानव अब तो जाग।
लाना अब बदलाव है, सजे तभी हों बाग।।

रोती रहती वह सदा, करे मनुज खिलवाड़।
रिसते उसके घाव है, रूप देते बिगाड़।।

  हरी-भरी यह हो सदा, करना है संकल्प।
इसे बचाना है हमें, यही होता विकल्प।।

अर्चना कोहली 'अर्चि'
नोएडा (उत्तर प्रदेश)

चित्र आभार: pixabay

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